Tuesday, July 30, 2019

'ये दिल माँगे मोर' कह कर कैप्टेन विक्रम बत्रा बन गए थे कारगिल युद्ध का चेहरा

कारगिल की लड़ाई से कुछ महीने पहले जब कैप्टेन विक्रम बत्रा अपने घर पालमपुर आए थे तो वो अपने दोस्तों को 'ट्रीट' देने 'न्यूगल' कैफ़े ले गए.

जब उनके एक दोस्त ने कहा, "अब तुम फ़ौज में हो. अपना ध्यान रखना..."

तो उन्होंने जवाब दिया था, "चिंता मत करो. या तो मैं जीत के बाद तिरंगा लहरा कर आउंगा या फिर उसी तिरंगे में लिपट कर आउंगा. लेकिन आउंगा ज़रूर."

परमवीर चक्र विजेताओं पर किताब 'द ब्रेव' लिखने वाली रचना बिष्ट रावत बताती हैं, "विक्रम बत्रा कारगिल की लड़ाई का सबसे जाना पहचाना चेहरा थे."

"उनका करिश्मा और शख़्सियत ऐसी थी कि जो भी उनके संपर्क में आता था, उन्हें कभी भूल नहीं पाता था. जब उन्होंने 5140 की चोटी पर कब्ज़ा करने के बाद टीवी पर 'ये दिल मांगे मोर' कहा था, तो उन्होंने पूरे देश की भावनाओं को जीत लिया था."

विक्रम बत्रा बचपन से ही साहसी और निडर बच्चे थे. एक बार उन्होंने स्कूल बस से गिरी एक बच्ची की जान बचाई थी.

विक्रम बत्रा के पिता गिरधारी लाल बत्रा याद करते हैं, "वो लड़की बस के दरवाज़े पर खड़ी थी, जो कि अच्छी तरह से बंद नहीं था. एक मोड़ पर वो दरवाज़ा खुल गया और वो लड़की सड़क पर गिर गई. विक्रम बत्रा बिना एक सेंकेंड गंवाए चलती बस से नीचे कूद गए और उस लड़की को गंभीर चोट से बचा लिया."

"यही नहीं वो उसे पास के एक अस्पताल ले गए. हमारे एक पड़ोसी ने हमसे पूछा, क्या आपका बेटा आज स्कूल नहीं गया है? जब हमने कहा कि वो तो स्कूल गया है तो उसने कहा कि मैंने तो उसे अस्पताल में देखा है. हम दौड़ कर अस्पताल पहुंचे तो हमें सारी कहानी पता चली."

भारतीय सेना में जाने का जज़्बा विक्रम में 1985 में दूरदर्शन पर प्रसारित एक सीरियल 'परमवीर चक्र' देख कर पैदा हुआ था.

विक्रम के जुड़वाँ भाई विशाल बत्रा याद करते हैं, "उस समय हमारे यहाँ टेलिविजन नहीं हुआ करता था. इसलिए हम अपने पड़ोसी के यहाँ टीवी देखने जाते थे. मैं अपने सपने में भी नहीं सोच सकता था कि उस सीरियल में देखी गई कहानियाँ एक दिन हमारे जीवन का हिस्सा बनेंगीं."

"कारगिल की लड़ाई के बाद मेरे भाई विक्रम भारतीय लोगों के दिलो-दिमाग़ में छा गए थे. एक बार लंदन में जब मैंने एक होटल रजिस्टर में अपना नाम लिखा तो पास खड़े एक भारतीय ने नाम पढ़ कर मुझसे पूछा, 'क्या आप विक्रम बत्रा को जानते हैं?' मेरे लिए ये बहुत बड़ी बात थी कि सात समुंदर पार लंदन में भी लोग मेरे भाई को पहचानते थे."

दिलचस्प बात ये है कि विक्रम का चयन मर्चेंट नेवी में हांगकांग की एक शिपिंग कंपनी में हो गया था, लेकिन उन्होंने सेना के करियर को ही तरजीह दी.

गिरधारी लाल बत्रा बताते हैं, "1994 की गणतंत्र दिवस परेड में एनसीसी केडेट के रूप में भाग लेने के बाद विक्रम ने सेना के करियर को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया था. हाँलाकि उनका चयन मर्चेंट नेवी के लिए हो गया था. वो चेन्नई में ट्रेनिंग के लिए जाने वाले थे. उनके ट्रेन के टिकट तक बुक हो चुके थे."

"लेकिन जाने से तीन दिन पहले उन्होंने अपना विचार बदल दिया. जब उनकी माँ ने उनसे पूछा कि तुम ऐसा क्यों कर रहे हो, तो उनका जवाब था, ज़िंदगी में पैसा ही सब कुछ नहीं होता. मैं ज़िंदगी में कुछ बड़ा करना चाहता हूँ, कुछ आश्चर्यचकित कर देने वाला, जिससे मेरे देश का नाम ऊँचा हो. 1995 में उन्होंने आईएमए की परीक्षा पास की."

साल 1999 की होली की छुट्टियों में विक्रम आख़िरी बार पालमपुर आए थे. तब उनके माता पिता उन्हें छोड़ने बस अड्डे गए थे. उन्हें ये पता नहीं था कि वो अपने बेटे को आख़िरी बार देख रहे थे.

गिरधारी लाल बत्रा को वो दिन अभी तक याद हैं, "ज़्यादातर समय उन्होंने अपने दोस्तों के साथ ही बिताया. बल्कि हम लोग थोड़े परेशान भी हो गए थे. हर समय घर में उनके दोस्तों का जमघट लगा रहता था. उनकी माँ ने उनके लिए उनके पसंदीदा व्यंजन राजमा चावल, गोभी के पकौड़े और घर के बने 'चिप्स' बनाए."

"उन्होंने उनके साथ घर का बनाया आम का अचार भी लिया. हम सब उसे बस स्टैंड पर छोड़ने गए. जैसे ही बस चली उसने खिड़की से अपना हाथ हिलाया. मेरी आँखें नम हो गई. मुझे क्या पता था कि हम अपने प्यारे विक्रम को आख़िरी बार देख रहे थे और वो अब कभी हमारे पास लौट कर आने वाला नहीं था."

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